Monday, December 31, 2012

चक, चकला, चकलादार

chakla-tokenहिन्दी के तीन चकले-2

क्र का चकला रूप मूलतः हिन्दी, पंजाबी में है । हिन्दी के चकला में चपटा, गोल, वृत्ताकार वाले आशय के साथ साथ प्रान्त का भाव भी है जबकि पंजाबी चकला में वृत्ताकार, गोल, घेरदार, विस्तीर्ण के साथ साथ शहर का खुला चौक, ज़िला अथवा वेश्यालय का आशय भी है । ज़ाहिर है ये फ़ारसी का असर है । भाषायी स्तर पर नहीं बल्कि मुस्लिम शासन का प्रभाव । विभिन्न संदर्भों से पता चलता है कि चकला मूलतः मुस्लिम शासन के दौरान भूप्रबन्धन, उपनिवेशन और राजस्व सम्बन्धी मामलों की शब्दावली से निकला है । चकला व्यवस्था से तात्पर्य एक राजस्व ज़िले से था । राजस्व अधिकारी चकलादार कहलाता था जिसे नाज़िम भी कहते थे । चकला में स्थानवाची भाव प्रमुख है । इसमें ‘चक’ में निहित तमाम आशय तो शामिल हैं ही, साथ ही आबादी और बसाहट का भाव भी है  । जिस तरह कई आबादियों के साथ चक नाम जुड़ा नज़र आता है ( रामपुर चक या चक बिलावली ) वही बात चकला में भी है जैसे मीरपुर चकला या चकला-सरहिन्द और दर्जनों ऐसे ही अन्य स्थानों के नाम । विभिन्न संदर्भों में चकला का अर्थ सर्किल, वृत्त, खण्ड या भाग होता है ।
मुस्लिमकाल की सरकारी भाषा अर्थात फ़ारसी में चकला यानी एक सब डिवीज़न या उपखण्ड जिसके अधीन कई परगना होते थे । आज इसे अनुभाग, उपवृत्त, उपखण्ड की तरह समझा जा सकता है । ख्यात इतिहासकार इरफ़ान हबीब के अनुसार क्षेत्रीय इकाई के रूप में चकला का संदर्भ शाहजहाँ के शासनकाल से मिलना शुरू होता है । परगना व्यवस्था के साथ साथ चकला व्यवस्था भी कायम थी । मुग़ल काल में लगभग समूचे उत्तर भारत में कई गाँवों के समूहों को पुनर्गठित कर उन्हें चकला कहा जाता था । चकले का प्रमुख नाज़िम, चकलादार या भूयान कहलाता था । इतिहास की किताबों में दर्ज़ है कि मुग़ल दौर में अलग-अलग राज्य इकाई को ‘सरकार’ का दर्ज़ा प्राप्त था । ‘सरकार’ या ‘सिरकार’ अर्थात एक राज्य शासन । एक ‘सरकार’ कई छोटी राजस्व इकाइयों में बँटी होती थी जो चकला कहलाती थीं । पूर्वी भारत में एक चकले का आकार मुग़ल सरकार (प्रशासनिक इकाई) का छठा हिस्सा होता था । शेरशाह सूरी शासित क्षेत्र को 47 सरकारों में बाँटा गया था । एक अन्य संदर्भ के अनुसार मुर्शिदकुली खाँ के ज़माने में बंगाल को 13 चकलों में बाँटा गया था ।
कोठे के अर्थ में भी चकला शब्द का स्थानवाची आशय ही उभरता है । देहव्यापार केन्द्र के रूप में चकला शब्द कैसे सामने आया इसे जानने से पहले यह समझ लेना ज़रूरी है कि प्राचीनकाल से ही समाज के प्रभावशाली तबके द्वारा देह व्यापार को प्रश्रय दिया जाता रहा है । शासन, सामंत, श्रेष्ठीवर्ग ने वेश्यावृत्ति को बढ़ावा दिया । सत्ता का जैसे-जैसे विकास होता गया, स्त्री-देह राजतन्त्र का एक विशिष्ट उपकरण बनती चली गई । वेश्यावृत्ति या देहव्यापार के पीछे स्त्री की मजबूरी नहीं बल्कि उसे ऐसा करने के लिए विवश किया गया । ब्राह्मणों-पुरोहितों नें इसके लिए न जाने कितने विधान-अनुष्ठान रचे । धर्म से लेकर कर्म तक स्त्री जकड़ी हुई है । वैसे भी स्त्री के रूप-लावण्य के आगे उसकी जाति-धर्म-वर्ण को ब्राह्मणों-पुरोहितों ने गौण माना है । विवाह, संतानोत्पत्ति आदि मुद्दों पर भी उपविधान रच कर पुरोहित समाज ने श्रेष्ठियों के लिए किसी भी वर्ण की स्त्री को सुलभ बनाया । देवदासी, नगरवधु का दर्ज़ा देकर सत्ता ने उसे विशिष्ट बना दिया और गणिका, वेश्या कह कर श्रेष्ठी वर्ग ने उसे बाजार में बैठा दिया । कभी कूटनीतिक दाँवपेच का हिस्सा बनी स्त्री देह कालान्तर में निरन्तर युद्धरत शूरवीरों की यौनपिपासा को शान्त करने का ज़रिया बनी । सेनाओं के साथ सरकारी खर्चे पर वारांगनाओं का काफ़िला भी चला करता था ।
हिन्दी शब्दकोशों में चकला का अर्थ वृत्त, चौका, रोटी बेलने का गोल, सपाट पत्थर, राज्य, सूबा, इलाक़ा, क्षेत्र के अलावा देहव्यापार का अड्डा, तवाइफ़खाना, वेश्यालय आदि बताया गया है । चकला के स्थानवाची आशय के साथ इसमें कसबीनों, तवाइफ़ों और जिस्मफ़रोशी के डेरों की अर्थवत्ता पश्चिमोत्तर सीमान्त क्षेत्र की बोलियों में स्थापित हुई होगी, ऐसा लगता है । गाँव, सूबा, इलाक़ा के लिए चक़, चक़ला जैसे शब्द फ़ारसी, पश्तो, पहलवी, बलूची, सिंधी के अलावा अनेक पश्चिमी बोलियों में मिलते हैं । मुग़ल फ़ौजों के लिए वेश्याओं की अलग जमात चलती थी । यही नहीं मुग़ल दौर में यह पेशा काफ़ी फलाफूला । चकला, रंडीखाना, ज़िनाख़ाना, ज़िनाक़ारी का अड्डा, तवाइफ़ख़ाना, कोठा जैसे कितने ही पर्यायी शब्दों की मौजूदगी से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है जो मुग़लदौर में प्रचलित थे । यही नहीं फ़ौजी चकला, रेजिमेंटल चकला जैसे शब्दों से भी इसकी पुष्टि होती है कि पहले मुग़ल दौर में और फिर औपनिवेशिक दौर में सामान्य चकला आबादी से इन चकलों को पृथक करने के लिए इनके आगे फौजी या रेजिमेंटल जैसे विशेषण लगाए गए । गौरतलब है कि दो सदी पहले तक यूरोप में भी मिलिटरी ब्रॉथेल जैसी व्यवस्था प्रचलित थी । रेजिमेंटल चकला भी वही है । ये सरकारी चकले होते थे ।
क़रीब सवा सौ साल पहले एलिजाबेथ एन्ड्र्यू और कैथरीन बुशनैल द्वारा लिखी गई पुस्तक - “द क्वींस डॉटर्स इन इंडिया” में फ़िरंगियों की सरपरस्ती में चलते ऐसे ही वेश्यालयों की दारुण गाथा बयान की गई है । क़िताब में इन अड्डों के लिए चकला शब्द का प्रयोग ही किया गया है । किताब बताती है कि ब्रिटिश दौर की हर अंग्रेज छावनी में चकला होता था जहाँ के रेट भी सरकार ने फिक्स किए हुए थे । चकलों के बारे में किताब में लिखा है कि, “In the regimental bazaars it is necessary to have a sufficient number of women, to take care that they are sufficiently attractive, to provide them with proper houses, and, above all, to insist upon means of ablution being always available.” ध्यान रहे रेजिमेंटल बाजार यानी छावनी बाजार जिनकी मूल पहचान रूपजीवाओं के डेरों यानी चकलों की वजह से ही थी । कृ.पा. कुलकर्णी के ‘मराठी व्युत्पत्ति कोश’, रॉल्फ़ लिली टर्नर की 'ए कम्पैरिटिव डिक्शनरी ऑफ़ इंडो-आर्यन लैंग्वेजेज़’ के मुताबिक चकला शहर का केन्द्रीय स्थान भी है । शहर के मध्य स्थित वृत्ताकार क्षेत्र, बाज़ार, पीठा, कोई भी गोलाकार बसाहट, अड्डा, दुकान, चौक आदि । यह मध्यवर्ती बसाहट ही कोठों का इलाक़ा यानी चक़ला था । किसी ज़माने में चक़ला तवाइफ़ों की बस्ती थी । बाद में चकला एक पेशे का पर्याय भी हो गया । कुछ लोग चक़ला और कोठा को एक मानते हैं । चक़ला शुरू से ही देह व्यापार केन्द्र रहा है जबकि कोठा महफ़िलों से आबाद होता था । चकला क्षेत्र था, कोठा इमारत थी । 
संदर्भों के मुताबिक मुग़ल बादशाहों ने जहाँ-जहाँ अपने स्थायी पड़ाव और लश्कर आदि रखे वहाँ तवायफ़ों और वेश्याओं को बसाया । जब लश्कर और पड़ाव जैसी आबादियाँ स्थायी बस्तियों में तब्दील हुईं तो वहाँ क़िलों की तामीर की गईं । फौज़ी और सरकारी अमलों की दिलज़ोयी के लिए इन नाचने-गानेवालियों, डेरेदारनियों, वेश्याओं को स्थायी ठिकाना बनाने के लिए जगह दी गईं । इन्हें भी चकला कहा गया । ये बसाहटें प्रायः छोटी गढ़ियों के बाहर और बड़े क़िलों में मुख्य बाज़ार से जुड़े हिस्सों में होती थीं । गौर करें चावड़ी बाज़ार शब्द पर । यह भी औपनिवेशिक दौर का शब्द हैं । चावड़ी यानी शहर के मध्य स्थित मुख्य चौराहा या चौक । इन्हें ही चावड़ी बाजार chawri bazar कहा गया। धनिकों के मनोरंजन के लिए ऐसे ठिकानों पर रूपजीवाओं के डेरे भी जुटने लगते हैं । इसीलिए चावड़ी बाजार शब्द के साथ तवायफों का ठिकाना भी जुड़ा है । ग्वालियर के चावड़ी बाजार की भी इसी अर्थ में किसी ज़माने में ख्याति थी । स्पष्ट है कि वेश्यालय के अर्थ में रसोई का चकला या स्थानवाची चकला में सिर्फ़ वृत्ताकार लक्षण की ही समानता है । स्थाननाम के साथ जुड़े चकला शब्द में पहले सिर्फ़ भूक्षेत्र का भाव था । बाद में इसमें बसाहट या आबादी का आशय जुड़ा । ब्रॉथेल की अर्थवत्ता वाले चकले में भी मूलतः आबादी, बसाहट का भाव था, न कि देहव्यापार का । समाप्त [ पिछली कड़ीः हिन्दी के तीन चकले-1]

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चक्र, चक्कर, चरखा

हिन्दी के तीन चकले-1circles
हिन्दी में तीन चकले बहुत प्रसिद्ध हैं । पहला ‘चकला’ है रसोई का जिसका साथ निभाता है बेलन । दूसरा ‘चकला’ स्थानवाची अर्थवत्ता रखता है जैसे चकला-खानपुर या नरवर-चकला । तीसरा चकला  है रूपजीवाओं का ठिकाना जो कला-व्यापार से ज्यादा देह-व्यापार के लिए कुख्यात है । तीनों ही तरह के चकलों का आज भी अस्तित्व है बल्कि ये भाषा-प्रयोग में भी बने हुए हैं । ये अलग बात है कि रसोई वाले चकले को छोड़ कर दोनो चकलों का सम्बन्ध भारत-ईरानी भाषा परिवार की फ़ारसी भाषा से है । गौरतलब है कि चक्कर, व्हील, साइकल, सर्कल जैसे शब्द इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार से सम्बद्ध हैं और एक ही गर्भनाल से जुड़े हैं और इनका रिश्ता वैदिक / संस्कृत शब्दावली के ‘चक्र’ से है । चकले के भीतर दाखिल होने से पहले जायज़ा लेते हैं चक्र का । भाषाविदों का मानना है कि वैदिक चक्र का पूर्वरूप चर्क रहा होगा और इसी वजह से वे चक्र की ‘चर्’ क्रिया में निहित निरन्तर गति का भाव देखते है । निरन्तर गति सीधी दिशा में हमेशा मुमकिन नहीं है किन्तु वलयाकार परिभ्रमण करते हुए इस निरन्तरता को सौफ़ीसद सम्भव बनाया जा सकता है । इसी लिए ‘चक्र’ के पूर्वरूप ‘चर्क’ से निरन्तर ‘चर्’ ( चल् = चलना ) वाली क्रिया सिद्ध होती है । अक्ष पर चारों दिशाओं में घूमना ही ‘चक्र’ है ।

इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार की भाषाओं में रोमन ध्वनियां ‘c’ और ‘k’ के उच्चारण में बहुत समानता है और अक्सर ये एक दूसरे में बदलती भी हैं । इसी तरह अंग्रेजी का कैमरा camara, चैम्बर और हिन्दी का कमरा  एक ही मूल के हैं मगर मूल c (स) वर्ण की ध्वनि यहाँ अलग-अलग है । यह जानना ज़रूरी है कि ग्रीक और आर्यभाषाओं के ‘च’ और ‘क’ वर्णों से बनने वाले शब्दों में आपसी रूपान्तर होने की प्रवृत्ति है । भारोपीय धातु kand ( कैंड / कंद ) का एक रूप cand ( चैंड / चंद् ) भी होता है। इससे बने चंद्रः का मतलब भी श्वेत, उज्जवल, कांति, प्रकाशमान आदि है । डॉ. रामविलास शर्मा ‘भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी’ में लिखते हैं - “संस्कृत चक्र का ग्रीक प्रतिरूप कुक्लॉस है । चक्र का पूर्वरूप चर्क होगा; वर्णविपर्यय से र् का स्थानान्तरण हुआ । कुक्लॉस का पूर्वरूप कुल्कॉस होगा; यहाँ भी वर्णविपर्यय से ल् का स्थानान्तरण हुआ । कुल्, कुर् क्रिया का पूर्वरूप घुर् होगा । कर्, सर्, चर् परस्पर समबद्ध हैं । सर्, चर् वाले रूप द्रविड़ भाषाओं में उल्लेखनीय हैं ।” एमिनो-बरो के द्रविड़ व्युत्पत्ति कोश के चुनींदा शब्दों के ज़रिये वे इसे साबित भी करते हैं मसलन । तेलुगु सारि (आवर्तन), सुरगालि (बवंडर), कन्नड़ सुळि, (घूमना), सुरुळि (छल्ला), तुलु सुळि (भंवर), सुत्तु (चक्कर खाना), तमिल चुर्रू ( चक्कर खाना), चूरई (बवंडर) आदि । किक्लोस से लैटिन के प्राचीन रूप में साइक्लस शब्द बना जिसका अंग्रेजी रूप साइकल cycle है । चक्र और साइकल एक ही है ।

वैदिक चक्र और बरास्ता अवेस्ता, पहलवी होते हुए फ़ारसी के चर्ख रूप में वर्णविपर्यय स्पष्ट नज़र आ रहा है । जिस तरह वैदिक ‘शुक्र’ से फ़ारसी में ‘सुर्ख़’ बनता है, ‘चक्रवाक’ का ‘सुरख़ाब’ होता है उसी तरह ‘चक्र’ से ‘चर्ख़’ बनता है । हिन्दी की पश्चिमी बोलियों में यही रूप सुरक्षित रहा और इससे ही गोल, वलयाकार यन्त्र के लिए ‘चर्ख’ शब्द बना जिसका एक रूप ‘चरख’ भी है । मानक बृहद हिन्दी कोश के मुताबिक फ़ारसी के ‘चर्ख़’ का अर्थ घूमने वाला गोल चक्कर, खराद, गोफन, तोपगाड़ी, रथ, करघा आदि होता है । करघे के लिए चरखा शब्द के मूल में चर्ख़ / चरख ही है । ध्यान रहे कलफ़ किए हुए विशाल आकार के सूती कपड़ों को चरख किया जाता है । दरअसल यह इसी चर्ख़ से निकला है । एक विशाल चरखी पर कपड़े को लपेटने की क्रिया ही चरख़ कहलाती है । ऐसा करने से कपड़े की सिलवटें दूर हो जाती हैं । पहिये या स्टीयरिंग को चक्का कहते हैं । चरखा, चरखी, चकरी, चक्की जैसे नाम पहिए, झूले, यन्त्र, उपकरण के होते हैं । सिर घूमने को चकराना कहते हैं । यह चक्कर से बना है । जो आपको चक्कर में डाल दे ऐसे व्यक्ति को ‘चक्रम’ की संज्ञा दी जाती है । चक्कर, चकराना, चकरम (चक्रम) जैसे शब्दों के मूल में चक्र ही है ।
हले जानते हैं ‘चक’ को जो फ़ारसी से हिन्दी में दाखिल हुआ । गाँव-देहात की जानकारी रखने वाले लोग ‘चक’ से खूब परिचित हैं । चक्र का ही रूपान्तर है चक जिसका अर्थ है ज़मीन का एक विशाल टुकड़ा । बड़ी आबादी से बसा हुआ क्षेत्र । कृषि भूमि या किसी भी किस्म की गोचर ज़मीन पर बसी आबादी । उपत्यका भूमि अथवा घाटी, दर्रा या तराई का क्षेत्र । व्यवस्थित बसाहट वाला गाँव । सतपुड़ा और मैकल पर्वत की तराई के एक क्षेत्र को बैगाचक कहते हैं । यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि यहाँ बैगा जाति की दर्जनों बस्तियाँ हैं । किन्हीं गाँवों के नामों के साथ भी यह शब्द लगा रहता है जैसे चक-चौबेवाला या चक-माजरा । यहाँ चक का अर्थ है चक्र अर्थात घेरा, वर्तुल, वृत्त आदि । पुराने ज़मानें से ही दुनियाभर में उपनिवेशन होता आया है । कृषिभूमि और जलस्रोतों के इर्दगिर्द आबादियाँ बसती रहीं । घिरी हुई जगह पर लोग बसते रहे । प्रायः शक्तिशाली व्यक्ति या शासक अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए निर्जन स्थानों पर लोगों को बसाया करते थे । खेतों के निकट अनुपजाऊ भूमि पैमाइश कर लोगों को बाँट दी जाती थी । इसी तरह प्रत्येक परिवार को खेत भी दिए जाते थे । भूमि के चौकोर टुकड़ों की पैमाइश होती थी, मगर चारों ओर से घिरे होने की वजह से उन्हें चक्र अर्थात ‘चक’ कहा जाने लगा था । सिलसिलेवार राज्यसत्ता के विकास के बाद भूक्षेत्र के रूप में चक शब्द का प्रयोग रूढ़ हुआ होगा । राजस्व शब्दावली के अंतर्गत हिन्दी में चक की आमद फ़ारसी से मानी जाती है । यूँ भी कह सकते हैं कि भारत-ईरानी परिवार की पश्चिमोत्तर बोलियों में प्राकृत चक्क के कई रूप प्रचलित होंगे जिनका सम्बन्ध वैदिक ‘चक्र’ से था । ऐसे कई चक होते थे जो बस्तियों में तब्दील हो जाते थे । किसी एक के स्वामित्व वाला खेतों का समूह भी चक कहलाता है जो अलग अलग मेड़ों के बावजूद मूलतः भूमि का एक ही खण्ड हो। इसी कड़ी का शब्द है चकबंदी जिसका अभिप्राय भूमि का सीमांकन या हदबंदी है । छोटी जोतों वाले खेतों को मिलाना या बड़े खेत में तब्दील करना ही चकबंदी है।
चकले की चर्चा । चक्कर ( चक्र ) और साइकल एक ही है । इसी तरह चक्र और सर्कल भी एक ही है । cycle में ‘c’ के लिए ‘स’ के स्थान पर ‘च’ का उच्चारण करें तो हमें अंदाज़ होता है इन दोनों में ( चक्कर ) ज्यादा अंतर नहीं है । साइकल भी एक वृत्त है और चक्कर भी मूलतः एक वृत्त ही है । डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार- संस्कृत में चक्र का एक ग्रीक प्रतिरूप और है- किरकॉस । ग्रीक भाषा में ही इसका एक वैकल्पिक रूप क्रिकॉस है । ‘कर’, ‘कल’ दोनो क्रियारूप ग्रीक में हैं । कॅर, कॉर, ये दोनो रूप उस भाषा में हैं । किरकॉस से इस बात की पुष्टि होती है कि कुक्लॉस का पूर्वरूप कुल्कॉस था । इसी प्रकार फ़ारसी चर्ख से इस बात की पुष्टि होती है कि संस्कृत चक्र का पूर्वरूप चर्क था । लैटिन किर्कुस (चक्र), किर्रुस (छल्लेदार बाल) का आधार कॅर है ।” जो भी हो, चक्र के पूर्वरूप चर्क की बात करें या र के ल रूपान्तर पर सोचें, चकला शब्द का रिश्ता चक्र से ही जुड़ता है । चक्र को अगर खोला जाए तो च-क-र हाथ लगता है । चकला में भी च-क-ल ध्वनियाँ हैं । 'र’ का रूपान्तर ‘ल’ में होता है और इस तरह सीधे सीधे चक्र से चकला ( बरास्ता चक्ल ) हासिल हो रहा है । रॉल्फ़ लिली टर्नर की कम्पैरिटिव डिक्शनरी ऑफ़ इंडो-आर्यन लैंग्वेजेज़ में चकला की व्युत्पत्ति संस्कृत के चक्रल से मानी है । भारत का ‘चकराला’ और पाकिस्तान के ‘चकलाला’ नाम के स्थानों के मूल में यही ‘चक्रल’ है । अन्य कोशों में भी चकला का रिश्ता चक्रल से जोड़ा गया है । यह चक्रल वही है जो अंग्रेजी में सर्कल है । अगर चक्र का पूर्व रूप चर्क माने तो अंगरेज़ी सर्कल के आधार पर इंडो-ईरानी परिवार में चर्कल जैसे रूप की कल्पना भी की जा सकती है अर्थात संस्कृत के चक्रल का पूर्ववैदिक बोलियों में चर्कल ( सर्कल सदृश ) जैसा रूप रहा होगा । सर्कल की कड़ी में सर्कस भी है । –जारी
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Tuesday, December 25, 2012

मोदीख़ाना और मोदी

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[ शब्द संदर्भ- असबाबअहदीमुसद्दीमुनीमजागीरदार, तहसीलदारवज़ीरसर्राफ़नौकरचाकरनायबफ़ौजदार, पंसारीव्यापारीदुकानदारबनिया-बक्कालक़ानूनगोलवाजमा, चालानजमादारभंडारीकोठारीकिरानीचीज़गोदामअमीर, वायसराय ]

पिछली कड़ी- मोदी की जन्मकुंडली

मोदी की अर्थवत्ता में शामिल भावों पर गौर करें तो इसका रिश्ता आपूर्ति, भंडार, स्टोर, राशन, दुकान, रसद, मिलिट्री सप्लाई, किराना, राजस्व, कर वसूली आदि से जुड़ता है । इन आशयों से जुड़े शब्दों की एक लम्बी शृंखला सेमिटिक धातु मीम-दाल-दाल (م د د ) यानी m-d-d से बनी है जिसमें आपूर्ति, सप्लाई, सहायता, सहारा, फैलाव जैसे भाव है । गौर करें हिन्दी में सहायता का लोकप्रिय पर्याय ‘मदद’ है जो इसी कड़ी से जुड़ा है । मद्द’ में निहित आपूर्ति या सहायता के भाव का विस्तार मदद में हैं जिससे मददगार, मददख़्वाह जैसे शब्द बने हैं । इसी कड़ी में आता है ‘इमदाद’ जिसका अर्थ भी आपूर्ति, सहायता, आश्रय, हिमायत अथवा सहारा होता है ।
द्द धातु से बने शब्दों में एक और दिलचस्प सब्द की शिनाख़्त होती है । बहीखातों की पहचान लम्बे-लम्बे कॉलम होते हैं जिनमें हिसाब-किताब लिखा जाता है । अरबी में इसके लिए ‘मद्द’ शब्द है । घिसते घिसते हिन्दी में यह ‘मद’ हो गया । हिन्दी में इसका प्रयोग जिन अर्थों में होता है उसका आशय खाता, पेटा, हेड या शीर्षक है जैसे- “यह रकम किस ‘मद’ में डाली जाए” या “मरम्मत वाली ‘मद’ मे कुछ राशि बची है” आदि । मद / मद्द के कॉलम, स्तम्भ या सहारा वाले अर्थ में अन्द्रास रज्की के अरबी व्युत्पत्ति कोश में अलहदा धातु ऐन-मीम-दाल से बताई गई है । इससे बने इमादा, इमाद, अमीद, अमूद और उम्दा जैसे शब्द हैं जिनमें सहारा, मुखिया, स्तम्भ, प्रमुख, विश्वसनीय, प्रतिनिधि जैसे भाव भी हैं, अलबत्ता ये हिन्दी में प्रचलित नहीं हैं । सम्भव है यह मद्द की समरूप धातु हो ।
मोदी शब्द की व्युत्पत्ति को मद्द से मानने की बड़ी वजह है इसमें निहित वे भाव जिनसे मोदी की अर्थवत्ता स्थापित होती है । ‘मद’ तो हुआ खाता मगर इसका ‘मद्द’ रूप भी हिन्दी में नज़र आता है जैसे मद्देनज़र, मद्देअमानत आदि । मद्देनज़र का अर्थ है निग़ाह में रखना । ‘मदद’ में जहाँ सहायता का भाव है वहीं आपूर्ति भी उसमें निहित है । ‘मदद’ अपने आप में सहारा भी है सो ‘मदद’ में निहित ‘मद्द’ पहले कॉलम या स्तम्भ हुआ फिर यह बहीखातों का कॉलम या खाना हुआ और फिर इसे मदद की अर्थवत्ता मिली । अरबी में एक शब्द है ‘मद्दा’ जिसका अर्थ है विस्तार, फैलाव, सहारा वहीं इसमें सामान, वस्तु, चीज़, पदार्थ अथवा मवाद आदि की अर्थवत्ता भी है । शरीर के भीतर जख्म होने पर जब वह पकता है तो उसका आकार फूलता है । प्रसंगवश ‘मवाद’ शब्द भी अरबी का है और इसी मूल से निकला है । ‘मद्द’ में निहित फैलाव, विस्तार इसमें निहित है । ध्यान रहे आपूर्ति में भी विस्तार, फैलाव की अर्थवत्ता है । किसी स्थान पर किसी चीज़ की आपूर्ति से फैलाव होता है । गुब्बारे में हवा की आपूर्ति से समझें । भोजन करने पर पेट के फूलने से समझें । इसी तरह विशाल क्षेत्र में राशन की आपूर्ति में भी फैलाव का वही आशय है ।
यूँ मुग़लदौर में एक सरकारी विभाग ‘मोदीखाना’ भी प्रसिद्ध था जिसका अर्थ था रसद-आपूर्ति विभाग । हिन्दुस्तानी – फ़ारसी कोशों में मोदीखाना शब्द मिलता है जिसका अर्थ भण्डारगृह , किराना-स्टोर, अनाज की आढ़त, granary या commissariat ( कमिसरियत, सेना रसद विभाग ) मिलता है । हालाँकि इन्स्टीट्यूट ऑफ सिख स्टडीज़ के डॉ. कृपाल सिंह ने अपनी पुस्तक सिख्स एंड अफ़गान्स में ‘मोदी’ को अरबी शब्द माना है और इसका अर्थ “भुगतान किया जा चुका” बताया है । इसी पुस्तक में वे ‘मोदीखाना’ के बारे में बताते हैं कि यह दरअसल मुस्लिम दौर की उन सरकारों में एक महत्वपूर्ण विभाग था जहाँ किन्हीं कारणों से मौद्रिक लेन-देन कम होता था  और भू-राजस्व का भुगतान जिन्सी तौर पर किया जाता था । अर्थात मुद्रा के बदले अनाज, राशन, पशु आदि दे दिए जाते थे । सरकार इसे ही महसूल समझ कर रख लेती थी । इसी मोदीखाने का प्रमुख ‘मोदी’ कहलाता था । यह ‘मोदी’ कर वसूल करता था । उसे जमा करता था और फिर जमा की गई जिंसों को वह शासन द्वारा निर्धारित मूल्य पर बेच भी सकता था । ज़ाहिर है इस नाम के पीछे मद्दा में निहित वस्तु, सामग्री, जिंस, चीज़ जैसे आशय ही व्युत्पत्तिक आधार हैं । प्रसंगवश सुलतानपुर के नवाब दौलत खां लोधी के मोदीखाने में अपने शुरुआती जीवन में गुरुनानक भंडारी (मोदी) के पद पर थे जहाँ खाद्यान्न के रूप में लगान जमा किया जाता था ।
सेनाओं में प्राचीनकाल से ही यह परिपाटी रही है कि कूच करते वक्त उनके साथ दुनियाजहान का असबाब भी चलता था । चालू भाषा में जिसे लवाजमा या फौजफाटा कहते हैं उसका तात्पर्य यही है । मुग़ल दौर में जब फौज चलती थी उसके साथ पंसारी की दुकान भी होती थी जिसे मोदीख़ाना कहते थे । दवाईखाना, मरम्मतखाना, फराशखाना जैसे विभागों में ही एक विभाग मोदीखाना था । स्थायी तौर पर किसी श्रेष्ठी को सेना में रसद आपूर्ति का काम मिल जाता था और कभी शासन की तरफ़ से ही प्रत्येक बड़े शहर में वणिकों को फौज को राशन पहुँचाने का अनुबंध मिल जाता था । सरकार के स्वामीभक्त व्यवसायी, प्रभावशाली धनिक ऐसे करार (ठेके) पाने के लिए जोड़-तोड़ करते थे । मगर उसकी मुश्किलें भी थीं । ये काम पाने के लिए उन्हें आज की ही तरह से सरकार के असरदार लोगों की जेबें गर्म करनी पड़ती थीं । आठवीं-नवीं सदी के भारत में भ्रष्टाचार के कई नमूने शूद्रक के ‘मृच्छकटिकम’ नाटक से भी पता चलते हैं ।
चार्य विष्णुशर्मा लिखित पंचतन्त्र में इसका उल्लेख है जिससे पता चलता है कि सेना में रसद आपूर्ति का काम प्राचीनकाल से ही मोटी कमाई वाला माना जाता था । पंचतन्त्र की संस्कृत – हिन्दी व्याख्या में श्यामाचरण पाण्डेय लिखते हैं- गौष्ठिककर्मनियुक्तः श्रेष्ठी चिन्तयति चेतसा हृष्टः। वसुधा वसुसम्पूर्णा मयाSद्य लब्धा किमन्येन ।। अर्थात “मोदी का काम करने वाला व्यापारी जब किसी राजकीय सेना आदि को रसद पहुँचाने का कार्य पा जाता है तो प्रसन्न होकर अपने मन में सोचता है कि आज मैने पृथ्वी पर सम्पूर्ण धन ही प्राप्त कर लिया है । पुनः निश्चित होकर लोगों को लूटता है ।” आज के दौर के बड़े कारोबारियों के पुरखों ने प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में रसद आपूर्ति ठेकों में करोड़ों के वारे-न्यारे किए थे, यह किसी से छुपा नहीं है । सेना सहित विभिन्न विभागों के कैंटीन और रेलवे की खानपान सेवा जैसी व्यवस्थाएँ दरअसल “मोदीखाना” जैसी प्राचीन आपूर्ति सेवाओं के ही बदले हुए रूप हैं । यूँ ‘मोद’ से भी ‘मोदी’ का रिश्ता जोड़ा जा सकता है क्योंकि उसके सारे प्रयत्न खुद के आमोद-प्रमोद के लिए होते हैं ।-समाप्त 

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Monday, December 24, 2012

मोदी की जन्मकुंडली

gnatmodikhana[ शब्द संदर्भ- असबाबअहदीमुसद्दीमुनीमजागीरदार, तहसीलदारवज़ीरसर्राफ़नौकरचाकरनायबफ़ौजदार, पंसारीव्यापारीदुकानदारबनिया-बक्कालक़ानूनगोलवाजमा, चालानजमादारभंडारीकोठारीकिरानीचीज़गोदामअमीर, वायसराय ]
प्रा  यः सभी भाषाओं के बुनियादी शब्दभंडार में जिन ख़ास स्रोतों से शब्द आते हैं उनमें सैन्य-प्रशासन जैसे क्षेत्र भी है । ऐसा ही एक शब्द है ‘मोदी’ modi वणिक वर्ग का एक उपनाम भी है जैसे प्रसिद्ध व्यावसायिक घराना ‘मोदी’ के संस्थापक रायबहादुर गूजरमल मोदी । उपनामों पर अगर गौर करें तो अधिकांश उपनामों के निर्माण का आधार स्थानवाची या कर्मवाची है अर्थात उपनाम धारण करने वाले के निवास या उसके खानदानी पेशा का संकेत इसमें छुपा होता है जैसे दारूवाला ( मद्य व्यवसाय ) या पोखरियाल (पोखरा वाला अर्थात पोखरा का निवासी ) आदि । ऐसा ही एक नाम ‘मोदी’ है मगर दो अक्षरों के इस सरनेम से ऐसा कोई संकेत नहीं निकलता जिससे इसमें निहित व्यवसायगत या जातिगत संकेत मिलें । हम सिर्फ़ रूढ़ अर्थ में जानते हैं कि ‘मोदी’ बनिया जाति का एक उपनाम है और बनिया व्यापार करता है । किन्तु मोदी शब्द में व्यापार जैसी अर्थवत्ता भी नहीं है । जानते हैं ‘मोदी’ की जन्मकुंडली ।

ब्दकोशों में ‘मोदी’ शब्द के बारे में तसल्लीबख़्श जानकारियाँ नहीं मिलतीं । लगभग सभी शब्दकोशों में ‘मोदी’ का रिश्ता संस्कृत के ‘मोद’ ( आनंद ) या मोदक ( लड्डू ) से जोड़ने का प्रयत्न नज़र आता है । खास बात यह भी कि तमाम कोशों में इसका अर्थ बनिया, अनाज का व्यापारी, नून-तेल-मिर्ची, आटा-दाल-चावल का आढ़ती, खाद्य सामग्री बेचने वाला परचूनिया, राशन-अनाज का किरानी आदि बताया गया है । ये सभी आशय संस्कृत के ‘मोद’ अर्थात आनंद, हर्ष, सुख के व्यावहारिक अर्थ से मेल नहीं खाते । जॉन प्लैट्स ‘मोदी’ का रिश्ता संस्कृत से जोड़ते हैं मगर उसका मूल नहीं बताते । यही नहीं, वे मोदी का मुख्य अर्थ मिठाईवाला या हलवाई बताते हैं । सम्भव है उनके दिमाग़ में ‘मोद’ से ‘मोदक’ अर्थात एक क़िस्म का लड्डू रहा हो । ‘मोदी’ का रिश्ता ‘मोदक’ से हिन्दी शब्दसागर में भी जोड़ा गया है, अलबत्ता ‘मोदक’ के अलावा उसके अरबी मूल का होने की सम्भावना भी जताई गई है । 

प्लैट्स के कोश में भी ‘मोदी’ को दुकानदार, बनिया, भंडारी आदि बताया गया है । गुजरात में मोढ़ वैश्य समुदायको मोढी भी कहा जाता है। इसका उच्चार भी कहीं कहीं मोदी की तरह किया जाता है। इस तरह यह स्थानवाची शब्द हुआ।  कुछ लोग सोचते हैं कि देशव्यापी मोदी का रिश्ता गुजरात के मोढेरा या गुजराती मोढ़ वैश्य समूदाय से है तो वह संकुचित दृष्टि है। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में साहू तेली होते हैं। यह साहू मूलतः साह, साधु से ही आ रहा है। प्रभावशाली वर्ग। अरबी मोदी की तुलना में मोढी या मोढ़ उपसर्ग का अर्थ व्यापक है। मोढेरा से जिनका रिश्ता है वे सभी मोढ हैं। खास तौर पर वणिकों और ब्राह्मणों में आप्रवासन ज्यादा हुआ सो मोढेरा के लोग मोढ हो गए। गुजाराती विश्वकोश के मुताबिक मोढ़ समुदाय में ब्राह्मण, वैश्य, किरानी, तेली, पंसारी, साहूकार सब आ जाते हैं।
 

मारा मानना है कि ‘मोदी’ भी सैन्य शब्दावली से आया शब्द है । इसका रिश्ता सेना की रसद आपूर्ति व्यवस्था से है । ‘मोदी’ का निर्माण निश्चित ही मुस्लिम दौर में हुआ जब अरबी-फ़ारसी शब्दों की रच-बस भारतीय भाषाओं में हो रही थी । फ़ौजदार, जमादार, नायब, एहदी, बहादुर, नौकर, चाकर, ज़मींदार, कानूनगो, मुनीम समेत सैकड़ों अनेक शब्द गिनाए जा सकते हैं जो अरबी-फ़ारसी मूल के हैं और जिनका रिश्ता फ़ौज से रहा है । ‘मोदी’ भी मूल रूप से अरबी ज़बान से बरास्ता फ़ारसी, हिन्दी, पंजाबी, मराठी, गुजराती में दाखिल हुआ । इतिहास-पुरातत्व के ख्यात विद्वान हँसमुख धीरजलाल साँकलिया ने गुजरात के सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, नृतत्वशास्त्रीय अध्ययन में इसे अरबी मूल का माना है । हालाँकि एस. डब्ल्यू फ़ैलन की न्यू हिन्दुस्तानी इंग्लिश डिक्शनरी में भी ‘मोदी’ का रिश्ता मोदक अर्थात लड्डू से जोड़ा गया है । ध्यान रहे मोदक का रिश्ता ‘मोद’ अर्थात आनंद से हैं ।
मोदी शब्द के अरबी होने के कई प्रमाण हैं । औपनिवेशिक शब्दावली के प्रसिद्ध कोश हैंक्लिन-जैंक्लिन में भी बनिया प्रविष्टि के अंतर्गत ‘मोदी’ का भी उल्लेख है । इसमें लिखा है कि “रियासती दौर में लगान की वसूली अनाज के रूप में होती थी उसे जिस गोदाम में इकट्ठा किया जाता था उसे मोदीखाना कहते थे । व्यापारी के अर्थ में एक अन्य शब्द ‘मोदी’ भी हिन्दी में प्रचलित है जिसका दर्ज़ा पंसारी या किरानी का है ।” आज भी देश के सैकड़ों शहरों-क़स्बों में ‘मोदीखाना’ नाम की इमारतें हैं जिनकी वजह से समूचे मोहल्ले या इलाक़े को भी मोदीखाना modikhana के नाम से जाना जाता है जैसे जयपुर का चौकड़ी मोदीख़ाना । इतिहास की क़िताबों में पंसारी या दुकानदार की अर्थवत्ता से इतर ‘मोदी’ शब्द के जो संदर्भ हैं उनमें उसे लगान अधिकार, कारिंदा, गुमाश्ता, दीवान, गाँव का मुखिया आदि बताया है। 

कृ.पा. कुलकर्णी के प्रसिद्ध मराठी व्युत्पत्तिकोश में ‘मोदी’ शब्द का अर्थ अनाज व्यापारी, दीवान, चौधरी, भंडारी आदि बताया है । ‘मोदी’ की व्युत्पत्ति अरबी के ‘मुदाई’ से बताई गई है जिसका अर्थ होता है विश्वस्त या भंडारी । मोदी के साथ ही मोदीखाना शब्द भी है जिसका अर्थ है फौजी रसद विभाग । ज़ाहिर है मोदी ही फ़ौजी रसद विभाग का प्रमुख यानी भंडारी हुआ । सिख विकी में भी मोदी शब्द का रिश्ता रसद, राशन, किराना से ही जुड़ता है न कि मिठाई या हलवाई से – “Modi Khana is a reference to a provision store or a food supplies store. It is referred to in the Janamsakhis of Guru Nanak when he worked in a food store in Sultanpur while staying in the town where his sister, Nanaki and her husband Bhai Jai Ram lived. ”  यही नहीं फारसी-मराठी कोशों में भी मोदी शब्द का उल्लेख है और इसका मूल ‘मुदाई’ बताया गया है ये अलग बात है कि अरबी, फ़ारसी, उर्दू कोशों में मुदाई शब्द नहीं मिलता । 
sutlerइंग्लिश-हिन्दुतानी, इंग्लिश-इंग्लिश, फ़ारसी-हिन्दी कोशों में मोदी का अर्थ सामान्य तौर पर आढ़ती ( grain merchant ) पंसारी ( grocer) बनिया ( trader ) विक्रेता ( vender ), व्यापारी ( Merchant ) दुकानदार ( shopkeeper ) के अलावा बतौर हलवाई या मिठाईवाला  'A sweetmeat-maker, a confectioner' भी मिलता है जिसका व्युत्पत्तिक सम्बन्ध कोशकारों नें ‘मोद’ या ‘मुद’ से जोड़ा है । ऐसा लगता है कि कोशकारों के मन में मोद = आनंद = मिठाई = हलवाई जैसा समीकरण रहा होगा अगर इसे किसी तरह कबूल भी कर लिया जाए तो भी यह मानना कठिन है कि हलवाई की अर्थवत्ता में पंसारी, आढ़ती, व्यापारी, बनिया, दुकानदार जैसे भाव कहाँ से समा गए ?

इसी कड़ी में क़रीब 110 साल पहले पोरबंदर रियासत के गजेटियर में ‘मोदी’ के बारे में लिखी ये पंक्तियाँ ध्यान देने लायक हैं- “In order No. 45* dated 17-8-1901 published in State Gazette Vol. XV regarding the Modi's duty to be present when called to fix the Nirakh of the Modikhana, the word " Modi " includes gheevvalas, fuel sellers, grocers, sweetmeat sellers, butchers &c.( The Porbandar State directory (Volume 2)” गजेटियर यह भी लिखता है कि मोदीखाना के लिए साल में एक बार स्थानीय व्यापारियों में से किसी एक को ठेका दिया जाता था ।
डिक्शनरी ऑफ़ द प्रिन्सीपल लेंग्वेजेज़ स्पोकन इन द बेंगाल प्रेसिडेंसी में पी.एस. डी’रोजेरियो भी ग्रोसर अर्थात किरानी के पर्याय के लिए ‘मोदी’ शब्द ही बताते हैं । हालाँकि वे इसके बांग्ला रूप ‘मुदी’ का उल्लेख करते हैं । बांग्ला और मराठी में ‘मोदी’ के साथ ‘मुदी’ mudi शब्द भी मिलता है । अंग्रेजी में एक शब्द है सटलर sutler जो मध्यकालीन डच भाषा के soeteler से बना है अर्थात सेना के लिए खान-पान सेवा चलाने वाला व्यापारी । अधिकांश प्रसिद्ध कोशों के पुस्तकाकार या ऑनलाईन संस्करणों में इसका हिन्दी अनुवाद मोदी ही दिया हुआ है । ध्यान रहे सामान्य तौर पर कैंटीन का अर्थ भी रसोई ही होता है । फौजी छावनियों को केंटोनमेंट cantonment कहते हैं जिसका संक्षेप कैंट होता है । अंग्रेजी कोशों में भी कैंट का मूलार्थ फौजी छावनी में राशन की दुकान है । अरबी के ‘आमद्दा’ में राशन पहुँचाने, मदद पहुँचाने या आपूर्ति का भाव है । ग्रोसर या पंसारी के तौर पर अरबी में ‘मोदी’ शब्द नहीं मिलता और फ़ारसी में भी नहीं पर इससे मिलते जुलते शब्द हैं जैसे मद्दी ( विषय-वस्तुओं में रुचि रखनेवाला), मुअद्दी ( पहुँचानेवाला, भेजनेवाला ), मद्दा ( विषय-वस्तु, सामग्री, चीज़, पदार्थ ) आदि जिनसे फ़ारस या भारत की ज़मीन पर मोदी शब्द विकसित हुआ होगा और वहीं से अन्य मुस्लिम शासित इलाक़ों की बोलियों में यह रचा-बसा होगा । –जारी 
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Sunday, December 9, 2012

सुरख़ाब के पर

surkhab

कि सी अद्वितीय गुण, ध्यान आकर्षित करने वाली विशेषता या विलक्षणता की अभिव्यक्ति के लिए “सुरखाब के पर” मुहावरा बोलचाल की भाषा में खूब इस्तेमाल होता है मसलन “ इंदौर में क्या सुरख़ाब के पर लगे हैं जो भोपाल में गुज़र नहीं हो सकती? ” सुरख़ाब यानी हंस की प्रजाति का एक पक्षी जिसके पखों की खूबसूरती की वजह से प्राचीनकाल से इस पखेरु को ख़ास रुतबा मिला हुआ है । हंस जहाँ सफेद रंग के होते हैं वहीं सुरखाब अपनी पीली, नारंगी, भूरी, सुनहरी व काली रंगत के पंखों की वजह से अत्यधिक आकर्षक होते हैं । ख़ूबसूरत, मुलायम, रंगीन पंखों का उपयोग कई तरह के परिधानों में होता रहा है जिसकी वजह से दुनियाभर में इनका अंधाधुंध शिकार होने से अब सुरख़ाब दुर्लभ प्रजाति के पक्षियों में हैं और इसके शिकार पर पाबंदी है ।
सुऱखाब को अंग्रेजी में रूडी शेलडक Ruddy Shelduck कहते हैं जिसका अर्थ है रंगीन हंस । अंग्रेजी के रूडी शब्द में रक्ताभ, सुर्ख या चटक का भाव है । डक यानी बतख । यूँ देखें तो इसे सुर्ख़+आब यानी सुर्खाब कहना ग़लत नहीं है । मगर यह इसकी व्युत्पत्ति का आधार नहीं है । रंगों के संदर्भ मे चटक, गहरा या तेज़ भाव वाला सुर्ख़ शब्द हिन्दी में फ़ारसी से आया और यह संस्कृत के शुक्र का रूपान्तर है । रंग से ताल्लुक रखती एक और महत्वपूर्ण बात । वैदिक शब्दावली में अनेक शब्द हैं जिनमें एक साथ सफ़ेद, पीला, लाल, हरा और कभी कभी भूरे रंग का भाव उभरता है । संदर्भों के अनुसार उस रंग का आशय स्वतः स्पष्ट होता जाता है । इसीलिए कांति या दीप्ति की अर्थवत्ता वाले शब्दों में प्रायः इन सभी रंगों का भी बोध होता है । संस्कृत के शुक्र में जहाँ श्वेताभ, पीताभ, रक्ताभ जैसी अर्थवत्ता रखता है वहीं फ़ारसी में शुक्र से बने सुर्ख़ में चटकीला लाल ही रूढ़ हुआ । सुरख़ाब में सुर्ख़ की कोई भूमिका नहीं है । जिस तरह चक्र से सुर्ख़ बना उसी तरह इसी सुरख़ाब के मूल में संस्कृत का चक्रवाक है ।
संस्कृत में सुरख़ाब chakravak का एक नाम हिरण्य हंस भी है । हिरण्य यानी सोना अर्थात सुनहरी हंस । सुरख़ाब के संस्कृत में अन्य कई नाम भी हैं जैसे चक्रवाक, रथचरण, वियोगिन, द्विक, अवियुक्त, हरिहेतिहूति, द्वन्द्वचर, निशाचर, भूरिप्रेमन्, द्वन्द्वचारिन्, गोनाद, रथाङ्ग, नादावर्त आदि । इसी तरह हिन्दी में इसे कोक, कोकहर, कोकई, चकई, चक्कवा, चाकर, चकवाह कहते हैं । प्राकृत में इसे रहंग कहा गया है और मराठी में इसका एक नाम ब्राह्माणी बदक Brahminy Duck भी है । सुरख़ाब दरअसल संस्कृत के चक्रवाक का फ़ारसी रूपान्तर है । ध्वनिपरिवर्तन के साथ अनुमानित विकासक्रम– चक्रवाक > शक्रवाक > शर्कवाब > सर्खवाब होते हुए सुरख़ाब हुआ होगा ।
हिरण्य हंस या सुनहरी हंस के चक्रवाक नामकरण के पीछे दरअसल रंग नहीं बल्कि उसकी विशेष आवाज़ है । मराठी संदर्भों के मुताबिक चक्रवाक नामकरण के पीछे संस्कृत में ‘चक्र इव वाक् शब्दोऽस्य रथाङ्गतुल्यावयन’ कारण बताया गया है । इसका मतलब हुआ रथ के चक्के में चिकनाई (लुब्रिकेंट) न डाले जाने पर जिस तरह किर-किर, खर-खर ध्वनियाँ पैदा होने से किरकिराहट की आवाज़ आती है, चक्रवाक भी अपने गले से वैसी ही आवाज़ निकालता है । संस्कृत में चक्र यानी चक्का और वाक् यानी आवाजा इस तरह चक्र + वाक = चक्के जैसी (रथ के पहिए समान) आवाज़ निकालने वाला पक्षी । चक्रवाक का एक अन्य नाम रथाङ्ग से भी यह स्पष्ट है । कर्नाटक संगीत में इस पक्षी के नाम पर एक राग-चक्रवाकम् Chakravakam भी है । 
प्राचीन कवियों के शृंगार-वर्णन में चक्रवाक का कई बार उल्लेख आता है । नर पक्षी को चक्रवाक और मादा को चक्रवाकी कहते हैं । हिन्दी में चकवा, चकवी (चक्रवाक > चक्कवा > चकवा / चक्रवाकी > चक्कवी > चकवी-चकई ) जैसे शब्द इससे ही बने हैं । चकवा-चकवी शाश्वत प्रेम प्रतीक हैं । दिनभर साथ रहने के बाद चक्रवाक और चक्रवाकी अलग अलग हो जाते हैं और रातभर विरह की अकुलाहट में कुर-कुर ध्वनि करते रहते हैं । मराठी संदर्भों में यह ध्वनि “ आंङ्ग-आङ्ग” बताई गई है । हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य का इतिहास में “चक्रवाक-मिथुन (चकवा-चकई)” शीर्षक आलेख में इस पक्षी के बारे में विस्तार से लिखा है । चक्रवाक chakravak  शरत्काल में भारत के जलाशयी क्षेत्रों में नज़र आता है और शेषकाल में यह अपने पर्यावास में लौट जाता है । स्वभावतः ये जोड़े में रहने वाला पक्षी ( रूडी शेल्डक ) है और मादा एक बार में 50-60 अंडे देती है ।
सम्बन्धित कड़ी- सुर्ख़ियों में शुक्र 

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Tuesday, November 27, 2012

किताब के बहाने ‘ख्वाब के दो दिन’

bookhhBookss[5]राजकमल प्रकाशन/ मूल्य-175रु./ पृ.284
दो ही तरह की किताबों को पढ़ने में हमें ज्यादा वक़्त लगता है । एक वे जो महत्वपूर्ण तो होती हैं, मगर बुनावट की दृष्टि से बोझिल होती हैं, पाठक को बांध कर नहीं रख पातीं । दूसरी वे जो महत्वपूर्ण तो होती ही हैं साथ ही उनकी भाषा, कथ्य और रचना-विधान भी विशिष्ट होता है । इन सभी चीज़ों का एक साथ आनंद लेते हुए एक बैठक में उस कृति को पढ़ पाना मुश्किल होता है । पहली किस्म की महत्वपूर्ण पुस्तकें कई बार लम्बे लम्बे अंतराल के बाद खत्म की जाती हैं । हाँ, दूसरी किस्म की कृतियों के साथ लम्बा अंतराल तो नहीं आता, मगर उन्हें एक बैठक में भी खत्म नहीं किया जा सकता । क्योंकि वे आपको सोचने का मौका देती हैं । वरिष्ठ पत्रकार यशवंत व्यास की हाल ही में प्रकाशित ‘ ख़्वाब के दो दिन ’ दूसरी किस्म की किताब है ।

yashwant 60यशवंत व्यास 'अहा ज़िंदगी', ‘दैनिक भास्कर’ और ‘नवज्योति’ के सम्पादक रह चुके हैं । इन दिनों ‘अमर उजाला’ के समूह सलाहकार । विभिन्न विषयों पर दस किताबें प्रकाशित

चिन्ताघर और ‘कामरेड गोडसे’ यशवंत व्यास की चर्चित औपन्यासिक कृतियाँ हैं । दोनों के लिए उन्हें अनेक सम्मान – पुरस्कार मिल चुके हैं । ‘चिंताघर’ 1992 में लिखा गया । ज़ाहिर है इसके कथा-फ़लक में 1992 से पहले के दो दशक समाए हुए हैं । इसी तरह ‘कामरेड गोडसे’ 2006 में प्रकाशित हुआ और इसमें भी 2006 से पूर्व के दो दशकों की छाया है । दोनों उपन्यासों में ख़बरनवीसी की दुनिया के समूचे तन्त्र की पड़ताल है ।‘चिंताघर’ से ‘कामरेड गोडसे’ तक का समय धर्मयुग, दिनमान जैसी पत्रिकाओं और नई दुनिया जैसे अखबारों से होते हुए क्षेत्रीय पत्रकारिता के उभार का काल है । इन दोनों उपन्यासों में लेखक ने लीक से हटकर रचे गए कथा-विधान के ज़रिये, उन चूहा सम्पादकों और गोबर ( गणेश ) मालिकों की कारगुज़ारियाँ उजागर की हैं जो सर्कुलेशन के आँकड़ों पर बाजीगरी दिखाते हुए, लोकल से ग्लोबल बनने की होड़ में आपराधिक जोड़-तोड़ से भी गुरेज़ नहीं करते । पत्रकारीय फ़लक पर लिखे गए दोनो कथानकों को अब उन्होंने एक छोटी भूमिका के ज़रिये एक साथ रख दिया है । ख़्वाब के दो दिन एक तरह से दोनों कृतियों का पुनर्पाठ है , जिन्हें  राजकमल प्रकाशन ने शाया किया है ।
बाज दफ़ा लेखक जो कुछ भोगता-देखता है उसे रोचक अंदाज़ में सामने रखता है । कभी वह अलग किस्म का शिल्प-विधान रचता है और कभी सहज क़िस्साग़ोई के ज़रिये कहानी कहता है । यशवंत व्यास का अपना अलग अंदाज़ है । उनके अनुभवों का केनवास बहुत बड़ा है । वे कई आयामों से दुनिया को देखते हैं । कभी दुनिया उनके आगे से गुज़रती है और कभी वे खुद उसका हिस्सा बन जाते हैं । सिर्फ़ कथ्य को समझ लेने की जल्दबाजी वाले गोष्ठीटाइप बुद्धिजीवियों के लिए यह उपन्यास बौद्धिक कसरत साबित हो सकता है । यही नहीं, बहुत मुमकिन है उन्हें रचना-विधान जटिल और अराजक तक नज़र आए । किन्तु पत्रकारीय नज़रिये से समसामयिक राजनीतिक परिदृष्य को समझने वालों और गंभीर लेखन करने वालों के लिए इस पुस्तक में भरपूर आधार-सूत्र मौजूद हैं ।
किसी नए फ़ारमेट के लिए भाषा का तेवर भी अनूठा होना चाहिए सो यशवंत व्यास यहाँ तो जैसे अपने तरकश के सारे तीरों के साथ नज़र आते हैं । ‘चिंताघर’ की जटिल संरचना की जिन्हें शिकायत है सो होती रहे । अपन को उनकी कतई चिन्ता नहीं । ‘ख्वाब के दो दिन’ के पहले ख़्वाब से गुज़रनें में अगर हमने ज्यादा वक़्त लगाया तो इसलिए नहीं क्योंकि वह जटिल था बल्कि इसलिए क्योंकि लेखक के भाषायी तिलिस्म में हम उलझ-उलझ जाते रहे । आलोचक टाईप लोगों के लिए यह उलझाव शब्द नकारात्मक हो सकता है मगर हम सकारात्मक अर्थ में इसे लिख रहे हैं । आप भूलभुलैयाँ में क्यों जाते हैं ? खुद हो कर जाते हैं और बार बार जाते हैं । सुलझाव की खातिर । सुलझाव के मज़े की खातिर । सुलझाव का यह मज़ा दरअसल चिन्ताघर के लेखक द्वारा खुद रचे गए नए मुहावरे को समझने पर आता है । इसीलिए लेखक के भाषायी तिलिस्म को समझने के लिए चिन्ताघर की कई-कई पेढ़ियाँ हमने बार-बार चढ़ीं और बहुत से गलियारों में देर तक ठिठके रहे । रिवायती अंदाज़ में कथानक से परिचित कराना यशवंत व्यास जैसी व्यंग्य दृष्टि रखने वाले लेखकों के लिए दायरे में बंधने जैसा होता है । दायरा तोड़े बिना व्यंग्य का पैनापन नहीं उभर सकता । उनकी भाषा हर बीतते क्षण और रचे जाते वर्तमान में मौजूद व्यंग्य-तत्व को स्कैन कर लेती है । व्यासजी का ऑटोस्कैनर जो नतीजे देता है वे अक्सर मुहावरों और सूक्तियों की शक्ल में सामने आते हैं – हिन्दी को समृद्ध करते नए भाषाई तेवर से आप रूबरू होते हैं । मगर ऐसा प्रयोगशीलता के आग्रह की वजह से नहीं बल्कि इसलिए क्योंकि चिन्ताघर जिस रचना-प्रक्रिया से जन्मा है, उसके बाद इस कृति का रूप यही होना था । वैसे भी इसमें आख्यायिका शैली या वर्णनात्मकता के लिए गुंजाइश नहीं थी ।
भाषायी तेवर की मिसालें ही अगर देना चाहें तो अपन ‘ख्वाब के दो दिन’ की समूची ज़िल्द ही कोट कर देंगे । कुछ बानगियाँ पेश हैं । 1.“मेरे पास प्रतिष्ठा रूपी जो कुछ था उससे एक चूहे को इस क़दर स्वस्थ रख पाना मुश्किल था” 2.”साफ़ करने के बाद भी मुँछें अन्तरात्मा की तरह उगना चाहती हैं । जो समझदार होते हैं वे प्रतिदिन शेव करते हैं, इस तरह अन्तरात्मा से भी मुकाबला किया जा सकता है । ” 3.“अच्छा मुख्य अतिथि स्थिर, गम्भीर और (कुछ एक अंगों को छोड़कर ) गतिहीन होता है । उससे उम्मीद की जाती है कि समारोह को गति प्रदान करे ।” 4. “समूचा तन्त्र भक्तिकालीन साहित्य की तरह पवित्र और रसमय हो जाता” 5. “उद्यमशीलता का सार्वजनिक शील प्रतिभावानों से सुरक्षित रहता है । लेकिन प्रतिभा की सार्वजनिक प्रतिष्ठा उद्यम के कुल टर्नओवर से वाजिब दूरी बनाए रखती है । इस प्रकार उद्यमी उद्यमशील बना रहता है और प्रतिभा, प्रतिभा ही रह जाती है – हिन्दी फिल्मों में हीरो की बहन जैसी । ”
bookचिन्ताघर वस्तुतः क्या है ? एक प्रतीक जो किताब के प्रथम सर्ग में छाया हुआ है । ‘चिन्ताघर’ अखबार का न्यूज़ रूम है । किसी औघड़ पत्रकार की खोपड़ी है । ‘चिन्ताघर’ किसी का भी हो सकता है । फ़िक़्रे-दुनिया में सिर खपाते उस आदमी का भी जिसके ख़्वाबों में चांद है और उसका भी जो रोटी के आगे किसी चांद की सच्चाई नहीं जानता । मौजूदा राजनीति के उदारवादी नटनागर भी किन्हीं चिन्ताघरों की रचना जनता को उलझाने के लिए करते हैं । अलबत्ता वहाँ सुलझाव का कोई प्रयत्न उसके नियामकों की तरफ़ से नहीं होता । इसी तरह ‘कामरेड गोडसे’ दरअसल किसी गोडसे और कामरेड का गड़बड़झाला नहीं बल्कि 1947 से पहले के भारतीय मानस का स्वप्नलोक, आज़ादी का यथार्थ और फिर पोस्ट मॉडर्निज्म- यानी ‘उआ युग’ (उत्तर आधुनिकता, जिसे लेखक ने जगह-जगह पोमो कहा है ) के मिले-जुले प्रभाव से पैदा हुआ एक बिम्ब है जिसके और भी कई आयाम पहचाने जाने अभी बाकी हैं । कवि, नेता, पत्रकार, अफ़सर, व्यापारी इन सबकी वीभत्स आकृतियाँ जब एक साथ सत्ता सुंदरी का शृंगार करती नज़र आती हैं तब न गाँधी शब्द चौंकाता है और न गोडसे ।
‘ख्वाब के दो दिन’ में ‘ चिंताघर ’ के रचना-विधान की जटिलता दूसरे सर्ग ‘ कामरेड गोडसे ’ में टूटती है । जैसा कि यशवंत व्यास भूमिका में बताते हैं कि दोनों कृतियों में डेढ़ दशक का लम्बा समयान्तराल है । 14 साल का यह अन्तर केवल पत्रकारिता के संदर्भ में ही नहीं है । भीष्म साहनी के ‘तमस’ का कथानक रावलपिंडी की एक मस्जिद के बाहर कटे सूअर की लाश मिलने के बाद दंगे की आशंका से शुरू होता है । वह 1946 का दौर था । 20वीं सदी के अंतिम दशक में या 21वी सदी के पहले दशक के पूर्वार्ध में ‘कामरेड गोडसे’ की शुरुआत मस्जिद के बाहर एक मुस्लिम सुधारवादी के कत्ल की खबर से होती है । उसकी लाश के पास सूअर का ब्रोशर बरामद होता है जिसे प्रख्यात चित्रकार ने बनाया था । अखबार का राठी रिपोर्टर कहता है कि-“अब सूअर काट कर फेंकने की ज़रूरत नहीं रही । सूअर का एक ब्रोशर ही काफ़ी है।” इस कृति को पढ़ते हुए राजनीति, कला, साहित्य की दुनिया के कई नामी लोगों के हवाले भी मिलते हैं । मगर यह भी मुमकिन है कि आपको अपने इर्द-गिर्द के चेहरे याद आ जाएँ ।
‘ख्वाब के दो दिन’ पढ़ते हुए लगातार धर्मवीर भारती का बहुचर्चित उपन्यास “सूरज का सातवाँ घोड़ा’, कृशन चंदर का ‘एक गधे की आत्मकथा’, श्रीलाल शुक्ल का ‘राग दरबारी’ और मनोहर श्याम जोशी का ‘कुरु कुरु स्वाहा’ याद आता रहा । इसलिए नहीं कि इनके लेखन के स्मृतिचिह्न हमें यशवंत व्यास के लेखन में नज़र आ गए, बल्कि इसलिए क्योंकि आख्यायिका शैली से ऊपर उठते हुए, सपाटबयानी को बरतरफ़ करते हुए ये कृतियाँ अपने अपने समय में नई ज़मीन तोड़ने के लिए चर्चित हुईं । इसी तरह कथ्य के नएपन, भाषायी तेवर और अनूठे रचना विधान के लिए ‘ख़्वाब के दो दिन’ ( चिन्ताघर, कामरेड गोडसे समाहित) हिन्दी कथा साहित्य में महत्वपूर्ण दखल है । पत्रकारिता की उथली सतह पर चहल-क़दमी कर जिन लोगों ने मंच पर वाहवाहियाँ लूटीं, जिनसे पत्रकारिता के नए नए धनुर्धारी प्रेरित होते रहे और उनका अनुकरण कर गौरवान्वित होते रहे, ऐसे द्रोणाचार्यों और उनके एकलव्यों को भी एक बार सही, ‘ख़्वाब के दो दिन’ पढ़ने की ईमानदार कोशिश करनी चाहिए ।  
ब्दो का सफ़र के वे साथी जो विचारोत्तेजक लेखन पसंद करते हैं, उन्हें यही सलाह है कि किताब ज़रूर पढ़ें ।

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Saturday, November 24, 2012

सुर्खियों में शुक्र

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हि न्दी में दो ‘शुक्र’ प्रचलित हैं । एक वो जिसके नाम पर सप्ताह का एक दिन मुक़र्रर है । ‘शुक्रवार’ वाला शुक्र ।  खगोलीय शब्दावली से आया हुआ आकाशीय पिण्ड शुक्र । एक ग्रह । फ़िल्मों के रिलीज़ होने का दिन । दूसरा वो जिससे बने शुक्रिया को हमने बतौर साधुवाद, धन्यवाद जाना-समझा है । इस ‘शुक्र’ में धन्यता, साधुता, आभार, स्तुति, प्रशंसा, गुणगान जैसे भाव छिपे हैं । शुक्रवार वाला शुक्र जहाँ भारोपीय भाषा परिवार की इंडो-ईरानी शाखा का शब्द है वहीं शुक्रिया वाला शुक्र सेमिटिक भाषा परिवार की अरबी ज़बान से बरास्ता फ़ारसी, भारतीय भाषाओं में दाखिल हुआ है । इसी तरह खगोल ज्योतिष शब्दावली वाला शुक्र मूलतः वैदिक शब्दवाली से आता है और पड़ोसी ईरान की फ़ारसी भाषा में भी इसका समरूप सुर्ख़ मौजूद है । वैदिकी की बहन अवेस्ता में इसका सुख्र होता है ।
बसे पहले उस शुक्र की बात करते हैं जिसमें चमक, दीप्त, दीप्तिमान, प्रकाशित, चमकीला जैसे भाव हैं । चमक से जुड़े भावों की वजह से इसमें उज्ज्वल, स्वच्छ, निर्मल जैसे आशय भी जुड़ते हैं क्योंकि चमकीले पदार्थ में मलिनता नहीं रहती । शुक्र के मूल में शुच् धातु है जिसका अर्थ है अग्नि, दाह, ताप, ज्वाला, दीप्ति आदि । आमतौर पर शुच के साथ पवित्रता जुड़ी हुई है । शुचि, शुचिता जैसे शब्दों में चमक, दीप्ति और पवित्रता का भाव ही है । अग्नि प्रत्येक वस्तु को शुद्ध और पवित्र बनाती है । इसीलिए शुक्र का अर्थ पवित्र भी है । मोनियर विलियम्स के कोश में इसकी तुलना संस्कृत के शुक्ल से भी की गई है । उनका मानना है कि शुक्र का अगला रूप ही शुक्ल है जिसमें वही सारे भाव हैं जो शुक्र में हैं । सौरमण्डल के दूसरे ग्रह का नाम भी शुक्र है । सूर्य से निकट होने की वजह से यह अत्यन्त चमकीला तारा है ।
शुक्र का अर्थ धन, सम्पत्ति, स्वर्ण भी है । इसे दैत्यों का गुरु माना जाता है । इसी तरह पौराणिक संदर्भों में इसके कुबेर का कोषाध्यक्ष होने का उल्लेख है । शुक्र यानी स्वच्छता और शुद्धता का प्रतीक । बल, सामर्थ्य और शक्ति के प्रतीक जीवन-तत्व को भी शुक्र कहते हैं । मूलतः शुक्र में पौरुष भाव समझा जाता है जबकि शुक्र में स्त्री या पुरुष दोनो के प्रजनन-सार का भाव है । शुक्र का अर्थ जल या किसी भी किस्म का द्रव या सत्व भी है । इसे जीवनतत्व का प्रतीक इसलिए माना गया क्योंकि इसमें शुद्धता और सारत्व का भाव है । इस जीवन तत्व का सबसे सुक्ष्म अंश शुक्राणु है ।
हिन्दी में सामान्यतया किसी भी खास खबर या अखबार के मुख्य शीर्षक को सुर्खी / सुरखी कहा जाता है । सुर्खी यानी जिस बात की सर्वाधिक चर्चा हो । आमतौर पर “सुर्खियों में” वाक्यांश इस सिलसिले में हमेशा सुनने को मिलता है । “आज की सुर्खी क्या है” में खास ख़बर जानने का आशय ही है । शुक्र का समरुप अवेस्ता में सुख्र होता है और फिर वर्ण विपर्यय के ज़रिये फ़ारसी में यह सुर्ख़ हो जाता है । गौर करें शुक्र में निहित चमक के भाव पर । सुर्खी में इसी चमक का आशय है मगर अनजाने में सुर्ख़ या सुर्ख़ी में लाल रंग का अर्थबोध होता है । यूँ अग्नि की एक अवस्था रक्ताभ होती है । चमक की यह रक्ताभ अवस्था दरअसल फ़ारसी में सुर्ख़ है । हालाँकि शुक्र के समरूप सुर्ख़ पर विचार करें तो भी उसकी चमक वाली अर्थवत्ता ही ज्यादा तार्किक सिद्ध होती है । खासतौर पर सुर्खी के खास समाचार वाले अर्थ में लाल रंग की कोई भूमिका नहीं है बल्कि सर्वाधिक चमकदार यानी जिस पर नज़र टिके, ऐसा भाव है ।
प्रसंगवश यह भी जान लिया जाए कि वैदिक शुक्र का समरूप फ़ारसी में सुर्ख तो बनता है मगर संस्कृत वाङ्मय की ज्योतिषीय शब्दावली वाले शुक्र तारे के अर्थ में शुक्र के सुर्ख़ समरूप का कोई अर्थ नहीं है । फ़ारसी में शुक्र या वीनस ग्रह के लिए नाहीद शब्द मिलता है जो स्त्रीवाची है । मुस्लिम समाज की स्त्रियों का नाम नाहीद भी रखा जाता है । जॉन प्लैट्स नाहीद की व्युत्पत्ति संस्कृत के असित से मानते हैं जिसका अर्थ भी चमकदार होता है । प्लैट्स अनाहत / अनाहिदा तक पहुँचने के बावजूद इसका रिश्ता असित से जोड़ते हुए इसमें अनुनासिकता आने का तार्किक आधार नहीं बता पाते ।  मोहम्मद हैदरी मल्येरी के खगोलीय शब्दकोश के अनुसार यह अवेस्ता के अनाहिता का रूपान्तर है । अवेस्ता में अनाहिता पवित्रता, उर्वरता की देवी है । चूँकि ये दोनों गुण पानी में हैं इसलिए अनाहिता जलदेवी हुई । ‘अनाहिता’ का अर्थ होता है निर्दोष, बेदाग । संस्कृत में अनाहिता शब्द नहीं है । हमारा मानना है कि इसका समरूप अनाहत हो सकता है जिसका अर्थ भी बेदाग होता है । अन + आहत = अनाहत । संस्कृत के हत् में आघात, चोट का भाव है । ज़ाहिर है पृथ्वी के पड़ोसी और सूर्य के दूसरे क्रम के चमकदार तारे को बेदाग़ मानते हुए उसे अवेस्ता में अनाहिता कहा गया । मध्यकालीन फ़ारसी में इसका रूप अनाहिता /अनाहिद हुआ और फिर का लोप होकर फ़ारसी में नाहीद सामने आया ।
रंग से ताल्लुक रखती एक और महत्वपूर्ण बात । वैदिक शब्दावली में अनेक शब्द हैं जिनमें एक साथ सफ़ेद, पीला, लाल, हरा और कभी कभी भूरे रंग का भाव उभरता है । संदर्भों के अनुसार उस रंग का आशय स्वतः स्पष्ट होता जाता है । इसीलिए कांति या दीप्ति की अर्थवत्ता वाले शब्दों में प्रायः इन सभी रंगों का भी बोध होता है । डॉ. रामविलास शर्मा के मुताबिक “प्राचीन गण समाजों के लिए रंग वह जो चमके । हरे-पीले का भेद उनके लिए गौण था ।” तोते के लिए संस्कृत में शुक शब्द है जिसके मूल में भी चमक, उज्ज्वल, दीप्ति के अर्थ वाली शुच् धातु ही है जिसमें मूलतः पीला रंग होता है । मगर तोता चटक हरे रंग की वजह से जाना जाता है और यही हरा रंग चटक-चमकीले की अर्थवत्ता साबित कर रहा है । दुख का पर्याय शोक है । शोक के मूल में भी शुच् है । मूलतः शोक में अग्नि, जलन, ज्वाला, दग्धता जैसे अर्थ हैं मगर इसका रूढ़ अर्थ दुख में प्रकट होता है । ये तमाम भाव मनुष्य के शरीर और मन के लिए दुखकारी ही हैं ।
ब आते हैं दूसरे शुक्र पर । हिन्दी में कृतज्ञता जताने के लिए धन्यवाद और शुक्रिया बेहद आम शब्द हैं । यह बना है शुक्र से जिसमें साधुता, धन्यता और आभार जैसे ही भाव हैं । इसका रिश्ता भी पशुपालन संस्कृति से है । प्राकृतिक विकास की प्रक्रिया से उपजे शब्दों की शृंखला में इसे देखा जाना चाहिए । शुक्रिया की व्युत्पत्ति सेमिटिक धातु शीन-काफ़-रा (sh-k-r) से हुई है जिसमें उगना, शाखों पर नए बौर आना अथवा हरे-भरे चरागाह का भाव है । गौरतलब है कि ये सभी परिस्थितियाँ प्रकृति के दाता या पालक रूप को दर्शाती हैं । बाद के दौर में शीन-काफ़-रा में कृतज्ञता, धन्यवाद जैसे भाव विकसित हुए जिसके मूल में प्रकृति की उदारता थी । आभार जताने के संदर्भ में इससे ही शुक्रिया बना । शुक्राना / शुकराना में आभार प्रदर्शन या कोई भेट-उपहार का आशय है । शुक्रगुज़ार शब्द भी हिन्दी में खूब प्रचलित है जिसका अर्थ है आभारी या कृतज्ञ । शुक्र मनाना, शुक्र मानना, शुक्रिया अदा करना जैसे मुहावरे हिन्दी में खूब चलते हैं । कृतज्ञ के अर्थ में इसी कड़ी में शकीर शब्द बनता है जिसका एक रूप शाकिर भी है । आभार व्यक्त करने के लिए मशकूर शब्द भी हिन्दी में जाना-पहचाना है ।

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Thursday, November 8, 2012

मनहूस और तहस-नहस

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पशकुनी की अर्थवत्ता वाला मनहूस शब्द हिन्दी में बहुत प्रचलित है । मनहूस का प्रयोग बहुत व्यापक है । तिथि, वार, जगह, नाम, वस्तु, ग्रह-नक्षत्र आदि वे सब चीज़ें जो शकुन-विचार के दायरे में आती हैं उनके साथ मनहूस का प्रयोग होता है । जो कुछ भी अशुभ, अलाभकारी है उसे हम मनहूस कहते हैं । हिन्दी में ‘मनहूस शक्ल’, ‘मनहूस आदमी’, ‘मनहूस घड़ी’, ‘मनहूस ख्याल’, ‘मनहूस बात’, ‘मनहूस लोग’ और ‘मनहूस ख्वाब’ जैसे संदर्भ नज़र आते हैं । अरबी का मनहूस शब्द फ़ारसी से होता हुआ हिन्दी में आया है । मनहूस के मूल में अरबी क्रिया-विशेषण नह्स / नहूसा है जिसका अर्थ है अशुभ, दुर्भाग्यशाली, अपशकुन आदि । अल सईद एम बदावी के कुरानिक कोश में नह्स / नहूसा के मूल में सेमिटिक धातु नून-हा-सीन ( n-h-s) है जिसमें मुसीबत, कठिनाई, दुख, विपत्ति जैसे भाव हैं । अरबी के नह्स में ‘म’ उपसर्ग लगने से मनहूस बनता है । मुहम्मद मुस्तफ़ा खाँ मद्दाह के उर्दू-हिन्दी कोश के मुताबिक मनहूस में अशुभ, अनिष्ट, अकल्याणकारी, बद, अभागा, बदक़िस्मत जैसे आशय हैं ।
नहूस के मूल में जो नहूसा है वह नहूसत बनकर उर्दू में विराजमान है । हिन्दी में अब यह अल्पप्रचलित है अलबत्ता आज़ादी से पहले की हिन्दोस्तानी में यह चलता था । नहूसत में भी मनहूसी का ही भाव है । निस्तेज, उदासीनता, दीनता, असहायता, क्लेश, आत्मदया, दुख या खिन्नता के भाव इसमें हैं । नहूसा में धूल, गर्द का भाव भी है । गौर करें कि किसी चीज़ की परवाह न की जाए तो उस पर धूल जम जाती है यानी वह वस्तु अपनी आभा या तेज खो देती है । चेहरा निस्तेज तभी होता है जब उस पर दुख या चिन्ता की छाया हो । चीज़ों पर धूल जमना बुरे दिनों का संकेत है । खुशहाली में चमक है, बदहाली को गर्दिश कहते हैं । चीज़ों पर धूल जमना अपशकुन है । यही नहूसा है । उर्दू में गर्दे-नहूसत भी एक पद है जिसका अर्थ है दुर्भाग्य की धूल, अशुभ लक्षण आदि । अस्त-व्यस्त में भी गर्दे-नहूसत को देखा जा सकता है । अस्त-व्यस्त के ‘अस्त’ में निहित निस्तेजता ( सूर्यास्त ) साफ़ पहचानी जा सकती है । परास्त में यही अस्त है । हार भी अपशकुन है । प्रेमचंद और उनके दौर की भाषा में नहूसत शब्द मिलता है ।
धूल जमने वाले लक्षण की तरह अन्य लक्षणों के आधार पर भी मनहूसियत को समझा जा सकता है । निकम्मे, कामचोर, आलसी, सुस्त लोगों को भी मनहूस कहा जाता है, क्योंकि उनकी वजह से परिवार, समूह, समाज में बरक्कत की उम्मीद नहीं रहती । अक्सर किसी भी संस्थान की बदहाली की वजह निठल्लों की जमात होती है । हाथ पर हाथ धरे बैठना, उंगलियाँ चटकाना, असमय सोना, उबासियाँ लेना, गुमसुम रहना, ऊँघना, नाखून से ज़मीन कुरेदना, आसमान ताकना, शून्य में देखना, निश्चेष्ट बैठे रहना, देर से जागना समेत दैनंदिन कार्य-व्यवहार के अनेक ऐसे संकेत हैं जिन्हें नहूसत या मनहूसी के दायरे में समझा जाता है क्योंकि इनमें गति अथवा क्रिया नहीं है । निष्क्रियता विकास को अवरुद्ध करती है । यही सबसे बड़ा अपशकुन है ।
नेस्तनाबूद, नष्ट-भ्रष्ट या बरबादी के संदर्भ में हिन्दी का तहस-नहस मुहावरा आम लोगों की ज़बान पर है । यह भी इसी कड़ी में आता है और तहस + नहस से मिलकर बना है । अ डिक्शनरी ऑफ़ उर्दू, क्लासिकल हिन्दी एंड इंग्लिश में जॉन प्लैट्स तहस-नहस का मूल नह्स-तह्स ( naḥs + taḥs ) बताते हैं । नह्स के तौल पर तह्स शब्द की रचना अनुकरण और साम्य का नतीजा है । स्वतंत्र शब्द के रूप में इसकी कोई अर्थवत्ता नहीं है । अरबी की नह्स-तह्स टर्म का हिन्दुस्तानी में विपर्यय होकर तहस – नहस रूपान्तर हुआ । नहूसा में निहित दुर्भाग्य, बदक़िस्मती, अशुभ जैसे आशय नहस में खराबी, बिगाड़, विनष्ट, खंडित, बरबाद, तितर-बितर, विध्वस्त में अभिव्यक्त हो रहे हैं । दुर्भाग्यपूर्ण जैसी अर्थवत्ता यहाँ सुरक्षित है । नहूसा में निहित गर्द वाला भाव अगर देखे तो तहस-नहस का हिन्दी पर्याय धूल-धूसरित सर्वाधिक योग्य नज़र आता है ।

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Monday, November 5, 2012

चारों ‘ओर’ तरफ़दार

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दिन भर के कार्यव्यवहार में इंगित करने, दिशा बताने के संदर्भ में हम कितनी बार ‘तरफ़’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं, अन्दाज़ लगाना मुश्किल है । इस तरफ़, उस तरफ़, हर तरफ़ जैसे वाक्यांशों में तरफ़ के प्रयोग से जाना जा सकता है कि यह बोलचाल की भाषा के सर्वाधिक इस्तेमाल होने वाले शब्दों में एक है । ‘तरफ़’ अरबी ज़बान का शब्द है और बज़रिये फ़ारसी इसकी आमद हिन्दी में हई है । ‘तरफ़’ की अर्थवत्ता के कई आयाम हैं मसलन- ओर, दिशा, जानिब, पक्ष, किनारा, सिरा, पास, सीमा, पार्श्व , बगल, बाजू आदि । तरफ़ का बहुप्रयुक्त पर्याय हिन्दी में ओर है जैसे ‘इस ओर’, ‘उस ओर’, ‘चारों ओर’, ‘सब ओर, ‘चहुँ ओर’ आदि । ओर में भी इंगित करने या दिशा-संकेत का लक्षण प्रमुखता से है ।
रबी धातु T-r-f ता-रा-फ़ा [ ف - ر ط - ] में संकेत करने का आशय है । मूलतः इस संकेत में निगाह घुमाने, रोशनी डालने, पलक झपकाने, झलक दिखाने जैसी क्रियाएँ शामिल हैं । अरबी में इससे बने तरफ़ / तराफ़ में दिशा ( पूरब की तरफ़, उत्तर की तरफ़), ( मेरी तरफ़, तेरी तरफ़ ), किनारा ( नदी के उस तरफ़) का आशय है । इसके अलावा उसमें सिरा, छोर, पास, कोना, जानिब जैसी अर्थवत्ता भी है । तरफ़ में दिशा-संकेत का भाव आँख की पुतलियों के घूमने से जुड़ा है । सामने देखने के अलावा पुतलियाँ दाएँ-बाएँ घूम सकती हैं । आँख के दोनो छोर, जिसे कोर कहते हैं, तरफ़ का मूल आशय उससे ही है । पुतलियाँ जिस सीमा तक घूम सकती हैं, उससे बिना बोले या हाथ हिलाए किसी भी ओर इंगित किया जा सकता है । आँख के संकेत से दिशा-बोध कराने की क्रियाविधि से ही तरफ़ में दिशा, ओर, छोर, किनारा, पास, साइड side जैसे अर्थ स्थापित हुए । तरफ़ में फ़ारसी का बर प्रत्यय लगने से बरतरफ़ शब्द बनता है जिसका आशय बर्खास्तगी से है ।
रफ़ में पार्श्व, पक्ष या पास जैसी अर्थवत्ता भी है । अरबी के तरफ़ में फ़ारसी का ‘दार’ प्रत्यय लगने से तरफ़दार युग्मपद बना जिसका अर्थ है समर्थक, पक्ष लेने वाला अथवा हिमायती । जो आपके साथ रहे वह पासदार कहलाता है और तरफ़दार में भी साथी का भाव है । इससे ही तरफ़दारी बना जिसमें किसी का पक्ष लेने, पासदारी करने का आशय है । किसी को अपने पक्ष में करने के लिए कहा जाता है कि उसे अपनी तरफ़ मिला लो । सामान्यतया किसी एक का पक्ष लेने वाला व्यक्ति पक्षपाती कहलाता है । तरफ़दार निश्चित ही किसी एक पक्ष का समर्थनकर्ता होता है । हिन्दी के पक्षपाती में जहाँ नकारात्मक अर्थवत्ता नज़र आती है वहीं तरफ़दार में ऐसा नहीं है । उचित-अनुचित का विचार करने के बाद किसी पक्ष का समर्थन करने वाला तरफ़दार है । दोनों पक्षों की थाह लिए बिना मनचाहे पक्ष की आँख मूँद कर हिमायत करने वाला पक्षपाती है । चीज़ के दो पहलू होते हैं । तरफ़ में जो पक्ष का भाव है वह और अधिक स्पष्ट होता है उससे बने एकतरफ़ा, दोतरफ़ा जैसे युग्मपदों से । एकतरफ़ा में पक्षपात हो चुकने की मुनादी है जैसे एकतरफ़ा फ़ैसला । जबकि दोतरफ़ा में दोनों पक्षो का भाव है ।
ब्दों के सफ़र में अब चलते हैं उस दिशा में जहाँ खड़ा है तरफ़ का पर्याय 'ओर' । भाषाविदों के मुताबिक ओर का जन्म संस्कृत के ‘अवार’ से हुआ है जिसमें इस पार, निकटतम किनारा, नदी के छोर या सिरा का आशय है । मोनियर विलियम्स के मुताबिक अवार का ही पूर्वरूप अपार है । गौरतलब है कि आर्यभाषा परिवार की ‘व’ ध्वनि में या में बदलने की वृत्ति है । संस्कृत के अप में दूर, विस्तार, पानी, समुद्र आदि भाव हैं । इसी का एक रूप अव भी है जिसमें दूर, परे, फ़ासला, छोर जैसे भाव हैं । अवार के ‘वार’ में भी ‘पार’ का भाव है । इस किनारे के लिए पार और उस किनारे के लिए वार । ज़ाहिर है कि उस किनारे वाले व्यक्ति के लिए किनारों के संकेत इसके ठीक उलट होंगे । 
पार का ही अन्य रूप अवार है और अवार से ओर का निर्माण हुआ जिसमें छोर, किनारा, दिशा, दूरी, अन्तराल जैसे आशय ठीक अरबी के ‘तरफ़’ जैसे ही हैं । पारावार और वारापार शब्दों में यही भाव है । ‘वार’ और में ‘पार’ में मूलतः व और प ध्वनियों का उलटफेर है । पार का निर्माण पृ से हुआ है और वार का ‘वृ’ से । पार के मूल में जो पृ धातु है उसमें गति का भाव है सो इसका अर्थ आगे ले जाना, उन्नति करना, प्रगति करना भी है । आगे बढ़ने के भाव का ही विस्तार पार में । पार यानी किसी विशाल क्षेत्र का दूसरा छोर । वैसे पार का सर्वाधिक प्रचलित अर्थ नदी का दूसरा किनारा ही होता है । पार शब्द भी हिन्दी के सर्वाधिक इस्तेमालशुदा शब्दों में है । आर-पार को देखिए जिसमें मोटे तौर पर तो इस छोर से उस छोर तक का भाव है, मगर इससे किसी ठोस वस्तु को भेदते हुए निकल जाने की भावाभिव्यक्ति भी होती है । आर-पार में पारदर्शिता भी है यानी सिर्फ़ भौतिक नहीं, आध्यात्मिक, मानसिक भी ।
संबंधित शब्द- 1. पक्ष. 2. पारावार. 3. वारापार. 4. वस्तु. 5. नदी. 7. आँख. 9. वार.

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Friday, November 2, 2012

तारीफ़ अली उर्फ़…

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प्र शंसा के अर्थ में हिन्दी मे तारीफ़ शब्द बोलचाल में रचा-बसा है । प्रशंसा क्या है ? हमारे आस-पास जो कुछ खास है उसकी शैली, गुण, वृत्ति, स्वभाव के बारे में सकारात्मक उद्गार । तारीफ़ दरअसल किसी व्यक्ति, वस्तु के गुणों का बखान ही होता है । हिन्दी की विभिन्न बोलियों समेत मराठी, गुजराती, बांग्ला में भी तारीफ़ शब्द है । तारीफ़ सबको अच्छी लगती है । कई लोग सिर्फ़ तारीफ़ सुनने के आदी होते हैं और कई लोग तारीफ़ करना जानते हैं ।  ज़रा सी तारीफ़ दो लोगों के बीच मनमुटाव खत्म कर सकती है । इसलिए तारीफ़ ज़रिया है, रिश्ता है, पुल है । खुशामदी लोग अक्सर तारीफ़ों के पुल बांध देते हैं । कहना न होगा कि झूठी तारीफ़ के रिश्ते इसलिए जल्दी ढह जाते हैं । वैसे तारीफ़ों के पुल ही नहीं बनते, तारीफ़ो की बरसात भी होती है ।
तारीफ़ सेमिटिक मूल का शब्द है और अरबी से बरास्ता फ़ारसी बोलचाल की हिन्दी में दाखिल हुआ । तारीफ़ के मूल में अराफ़ा क्रिया है जिसका जन्म अरबी धातु ऐन-रा-फ़ा [ع-ر-ف] से हुआ है । ऐन-रा-फ़ा [ 'a-r-f ] में पहचानना, मानना, स्वीकार करना जैसे भाव हैं । प्रकारान्तर से इसके साथ ज्ञान, बोध, अनुभूति, परिचय जैसे भाव जुड़ते हैं । “आपकी तारीफ़” जैसे वाक्य में परिचय का आशय है, न कि सामने वाले के मुँह से उसकी प्रशंसा सुनने की मांग ।  कुछ कोशों में इसका अर्थ गन्ध दिया हुआ है । यूँ देखा जाए तो गन्ध से ही किसी चीज़ की पहचान, बोध या ज्ञान होता है । अरबी का ‘ता’ उपसर्ग लगने से तारीफ़ बनता है जिसमें मूलतः किसी घोषणा, उद्गार (सकारात्मक) का भाव है । तारीफ़ में विवरण, वर्णन भी होता है । तारीफ़ में प्रशंसाभर नहीं बल्कि इसका एक अर्थ गुण भी है । सिर्फ़ प्रशंसा झूठी हो सकती है, मगर गुण का बखान झूठ की श्रेणी में नहीं आता । सो गुण ( परिचय ) की जानकारी, उसकी व्याख्या, विवरण, प्रकटन, बखान आदि तारीफ़ के दायरे में है ।
सामान्यतया परिचय के अर्थ में हम तआरुफ़ शब्द का प्रयोग करते हैं । ताआरुफ़ सिर्फ़ किन्ही दो लोगों को एक दूसरे से मिलाना अथवा किन्ही दो लोगों का आपस में परिचय भर नहीं है । अराफ़ा में जानने का भाव है, जो सीखने के लिए ज़रूरी है । इसी तरह औरों को योग्य बनाने के लिए सीखना ज़रूरी है । हमने जो कुछ जाना है, वही दूसरे भी जान लें, यही तआरुफ़ है । बुनियादी तौर पर तआरुफ़ में समझने-समझाने, शिक्षित होने का भाव है । इसका एक रूप तअर्रुफ़ भी है जिसका अर्थ जान-पहचान, समझना आदि है । इसी शृंखला के कुछ और शब्द हैं जो हिन्दी क्षेत्रों में इस्तेमाल होते हैं जैसे संज्ञानाम आरिफ़ जिसका अर्थ है जानकार, विशेषज्ञ, प्रवीण, निपुण, चतुर आदि । इसी तरह एक अन्य नाम है मारूफ़ । संज्ञानाम के साथ यह विशेषण भी है । मारूफ़ वह है जिसे सब जानते हों । ख्यात । प्रसिद्ध । नामी । जाना-माना । बहुमान्य । मशहूर आदि । साहित्य में मारूफो-मोतबर ( नामी और विश्वसनीय ) या मारूफ़ शख्सियत जैसे प्रयोग जाने-पहचाने हैं ।
सी कड़ी में उर्फ़ भी है । हिन्दी में उर्फ़ शब्द का प्रयोग भी बहुतायत होता है । उर्फ़ तब लगाते हैं जब किसी व्यक्ति के मूल नाम के अलावा अन्य नाम का भी उल्लेख करना हो । उर्फ़ यानी बोलचाल का नाम, चालू नाम । जैसे राजेन्द्रसिंह उर्फ़ ‘भैयाजी’ । ज़ाहिर है मूल नाम के अलावा जिस नाम को ज्यादा लोकमान्यता मिलती है वही ‘उर्फ़’ है । उस शख्सियत का बोध समाज को प्रचलित नाम से जल्दी होता है बजाय औपचारिक नाम के । इसलिए उर्फ़ इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि समाज में उसी नाम से लोग उसे पहचानते हैं । फ़ारसी में इसका उच्चार ‘ओर्फ़’ की तरह होता है । लोग कहतें है, ज़रा सी तारीफ़ करने में क्या जाता है ? अर्थात तारीफ़ में कोई मेहनत नहीं लगती, अपनी जेब से कुछ नहीं जाता । एक धेला खर्च किए बिना तारीफ़ से काम हो जाता है । ऐसी तारीफ़ खुशामद कहलाती है । 
रबी, तुर्की में ही तारीफ़ का तारिफ़ा रूप भी है जिसका अर्थ किसी चीज़ का मूल्य अथवा किराया है । करें कि जिस तरह किसी चीज़ की गन्ध ही उसका परिचय होती है या यूँ कहें कि किसी चीज़ के अस्तित्व का बोध उसकी गंध से होता है । मनुष्य जीवन में मूल्यवान अगर कुछ है तो वह गुण ही हैं । गुणों से ही स्व-भाव विकसित होता है । मूल्य बना है ‘मूल’ से जिसमें मौलिक, असली, खरा का भाव है । जो जड़ में है । जो उसका स्व-भाव है । जब हम किसी चीज़ का मूल्य आँकते हैं तब गुणवत्ता की परख ही महत्वपूर्ण होती है । गुण ही मूल्य हैं । गुण ही किसी चीज़ को विशिष्ट बनाते हैं, मूल्यवान बनाते हैं । मनुष्य के आचार-विचार ही उसके गुण हैं । वही उसके जीवनमूल्य होते हैं । कहते हैं कि सिर्फ़ तारीफ़ से पेट नहीं भरता । इसका अर्थ यह कि गुण का मूल्यांकन करने के बाद ज़बानी प्रशंसा काफ़ी नहीं है ।
सी तरह किसी चीज़ का मूल्य दरअसल उसका परिचय ही है । भौतिकवादी ढंग से सोचें तो किसी चीज़ का मूल्य अधिक होने पर हम फ़ौरन उसकी खूबी ( गुण ) जानना चाहते हैं । यानी मूल्य का गुण से सापेक्ष संबंध है । तारिफ़ा में मूल्य का जो भाव है उसका अर्थ भी प्रकारान्तर से परिचय ही है । अरबी के तारिफ़ा में जानकारी, सूचना जैसे भावों का अर्थसंकोच हुआ और इसमें मूल्य, मूल्यसूची, खर्रा, फेहरिस्त समेत दाम, दर, शुल्क, भाव, मूल्य, कर जैसे आशय समाहित हो गए । यह जानना भी दिलचस्प होगा कि अंग्रेजी के टैरिफ़  tariff शब्द का मूल भी अरबी का तारिफ़ा ही है । अरब सौदागरों का भूमध्यसागरीय क्षेत्र में दबदबा था । मूल्यवाची अर्थवत्ता के साथ तारिफ़ा लैटिन में दाखिल हुआ और फिर अंग्रेजी में इसका रूप टैरिफ़ हो गया जिसमें मूलतः शुल्क, दर या कर वाला अभिप्राय है ।

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